भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मार रही हैं लोकवेद को / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:08, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मार रही है
लोकवेद को
भद्रजनों की अदाकारियाँ,
ओछी बिछा बिसात
बिखेरी
अधकचरी कुछ जानकारियाँ।

हमको रखा निरक्षर, लेकिन इनसे स्वार्थ-
उपनिषद बाँचे।
ढलते रहे स्वर्णकलशों से

हमको रखा बनाकर साँचे।
मूड़ काटते मोरध्वज सी
राजे-रानी चला आरियाँ। मार रही है।।।।

विधिसम्मत ये कोढ़ दे रहे,
परम्परागत दाद-खाज में।
पिछड़ों की क्या बात करें हम-

संविधान सम्मत सुराज में?
इनके बीज
कहाँ तक धारें
सिलिया जैसी अवश नारियाँ। मार रही हैं।।।

शबरी औ शम्बूक हजारों,
जीवनरेखा से नीचे हैं।
सरसुतिया,
दुरगी, लछमी की

ये चोली अँगिया खींचे हैं।
फाँस रखा
पीढ़ी दर पीढ़ी
फैलाकर फर्जी उधारियाँ।
मार रही हैं लोकवेद को।