भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

भैंस मरे पर घरभर रोए / नईम

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:16, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भैंस मरे पर घरभर रोए,
गाज गिरे पर पूरा गाँव।

धूल-धूसरित देश हो रहा,
मारे है जम ठाँव-कुठाँव।

पीठ पसलियाँ चिलक रही आँतों में ऐंठन,
ये दिन बैरी हुए, हुईं रातें भी बैरिन।

महाप्रलय में फँसी हुई फिर
मनुपुत्रों की बूढ़ी नाव।

महज ईंट-गारे को लेकर बिखराए सपने घरगूले,
पंच प्रधान बनाएँ किसको, सबके हैं माटी के चूल्हे।

छुटभैये नेतृत्व कर रहे
लँगड़े दिए फटे में पाँव।

गैरों की क्या बात करें अपनों के होते,
जीवन निखद मृत्यु से कर बैठा समझौते।

धर्मराज फिर लगा रहे हैं,
संतो! आज आखिरी दाँव।