न जाने वतन आज क्यों / नईम
न जाने वतन आज क्यों याद आया,
वो खपरैल का घर सहन याद आया।
न जाने वतन आज क्यों याद आया।
ये भाड़े के गुलमान, बूढ़ी कनीजें,
बहुत महँगी-महँगी ये नायाब चीजें;
सबकुछ तो है मेरे दैरो हरम में-
मगर बेर, तुलसी कहाँ चल के बीजें?
वो सीता की तृष्णा, वो रघुवर के बाण,
विवश तोड़ता दम हिरन याद आया।
चकाचौंध ग़रमी खिंचावों का मौसम,
दिलोजाँ पे पड़ते दबावों का मौसम;
दिखाईं, सुनाईं परोसी जतन से-
जो बाँधी गईं उन हवाओं का मौसम।
दिया दान बामन को संकल्प करते,
रखा पीठ पर वो चरण याद आया।
हुईं मुद्दतें, अब न होगा घरौंदा,
न पहला झला जेठ का होगा सौंधा;
खाने के महुओं से खींची गई जो-
पिए रामदिनवा पड़ा होगा औंधा।
जले पाँव, माथे पे सूरज का बोझा-
अनायास अपना मरण याद आया।
जिनकी अपनी पूँजी न कोई,
लगते जो ठेकेदारों-से,
पते-ठिकाने पूछ रहे वो
अहले जदब औ फनकारों से।
निराकार प्रभु की नजरें, साकार सगुण ये इनके बंधन,
हाथ बाँध इनके दरबारों खड़े हुए तहज़ीबोतमद्दुन।
रसविभोर हैं ये लक्ष्मी की-
पदचापों से, झंकारों से।
अभी ज़मीं से उठे नहीं ये, आसमान लाएँगे नीचे,
भोग रहे ये पुरुष प्रकृति को, महाभाव से आँखें भींचे;
परम्परा की पीठों पर ये
उग आए खर-पतवारों से।
रूप, रंग, रस, गंध गज़ब पर स्वाद नहीं है बिल्कुल,
रिश्तों में गहरे जाकर संवाद नहीं है व्याकुल।
आत्ममुग्ध संतुष्ट भयानक
अपने छोटे संसारों से।