Last modified on 14 मई 2018, at 15:48

किस कदर खलने लगी हैं / नईम

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:48, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

किस कदर खलने लगी हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

ग़म अगर होते किसी को बाँट देता,
हथकड़ी होती सरासर काट देता,
हो गई होती अगर गुस्ताखियाँ तो-
स्वतः को अपने तईं में डाँट लेता।

सुबह से पीछे पड़ी है,
शाम की परछाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगी हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

बेखबर ये धूप से पानी-हवा से,
एक डरने लगा दूजे से सवा से,
क़िस्म है शायद नई बीमारियों की-
बढ़ रही है जो हकीमों की दवा से।

अहम् ने चारों तरफ से
खोद लीं, जो खाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगीं हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।

चुटकियों में कर दिया ख़ारिज ज़माना,
रास अब आता नहीं गाना-बजाना।
रात-दिन समझा रही हैं बिला नागा-
किस तरह, किस हाल में फाँसी लगाना।

स्तत्व के भुतहे महल में
फड़फड़ाती झाइयाँ ये।
किस कदर खलने लगीं हैं
आजकल तनहाइयाँ ये।