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बाजबहादुर सधे नहीं गर / नईम

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बाजबहादुर सधे नहीं गर,
लोकलाज को परे हटाकर थोड़ा रूपमती को गा लें,
गा लेंगे फिर कभी हकीकी थोड़ा इश्क मजाजी गा लें।

जाति, वर्ण, नस्लों के घेरे, घिरे न अब तक इनके डेरे,
देश-काल के जाल डालकर फँसा न पाए क्रूर मछेरे;
शंकरजी कैलास जा बसे
साथ साज़ का देंगे जनगण, थोड़ा पार्वती को गा लें।

गहरी खाई या बंकर हो, धरमपुरी या सारंगपुर हो,
प्रेम-पीर के मारे हैं सब, असल बीज या फिर संकर हो;
निर्गुन को गाया सदियों से,
हाथ न आई लेकिन मंज़िल, गुनिया महासती को गा लें।

ऊबड़-खाबड़ लुटी-पिटी है, कहीं लिखी-सी कहीं मिटी है,
राजकुमारी रूप कहीं पर, कहीं लोक ने कहा, नटी है;
काली सिंधु नदी की धारा
माँडव वन की गूँज सरीखी, निश्छल सरस्वती को गा लें।

तनिक छाँव की अधिक धूप की, प्रेमकहानी बाज-रूप् की,
हर युग ने दोहराई गाई, अद्वितीय अद्भुत अनूप की;
भाग्यवान क्षिप्रा नेवज को,
कालिदास ने गाया, हम-तुम रेवा शाश्वती को गा लें।