भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कहीं अशोक, कदंब कहीं पर / नईम
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:27, 14 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नईम |अनुवादक= |संग्रह=पहला दिन मेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कहीं अशोक, कदम्ब कहीं पर,
ये बरगद की छाँव हुए दिन।
सदा एक से रहे न ये दिन,
धन्ना सेठों या मजूर के,
निष्क्रिय आशीषों के बिरवे
मिले ताड़ या फिर खजूर के।
सागवान के दम्भ कहीं पर
कहीं बकुल के गाँव हुए दिन।
नींव बिना जो खड़ी दिवालें,
घिरा हुआ सकपका गया हूँ,
वृक्षविहीन हुए दिन जब भी,
भीतर से अकबका गया हूँ।
कहीं अंत, प्रारम्भ कहीं पर,
मृगतृष्णा के गाँव हुए दिन।
कहीं हक़ीक़त के आईने,
कहीं हुए प्रख्यात कथानक,
पंडे हुए कहीं पर ख़ासे,
कहीं कबीरा, दादू, नानक;
कहीं हवा में तने पाल-से,
सागरजल में नाव हुए दिन।
कहीं अशोक कदंब कहीं पर,
ये बरगद के छाँव हुए दिन।