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डंठल से गिरा हुआ फूल / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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लालसा के छवि-विपिन में स्वप्न-से द्युतिमान,
अन्ध मधु के गन्ध-से थे उदित इन्दु-समान।
लता पल्लव-अंक में थी पालती सानन्द,
मलय मारुत था झुलाता पालने में मन्द।

चाँदनी के दूध में कर सतत स्वार्गिक स्नान,
खेलते-ही खेलते कलि से किलक नादान।
आ गया यौवन तुम्हारे अंग में प्रति अंग,
रूप का-सा मुग्ध, आकुल प्रणय का ले रंग।

जगी मदिरालस नयन में वासना की आग,
फूट बिखरा उत्कलित स्वर, गन्ध-पूरित राग।
मधुप मँडलाने लगे, हँसने लगे कान्तार,
बह उठे मुध-स्रोत पागल प्यार-से अविकार।

हृदय में था हो रहा रस-विन्दु का संचार,
पी रहा था जिसे छक कर यह तृषित संसार।
रंक हो कि नृपाल या हो और कोई क्यों न,
एक टक लख ठिठक सहसा रुक गया हो जो न?

माधुरी मंे अधर की थे लाज-लोहित हास,
अंग में सिहरन, भ्रुओं में मंजरित मधुमास।
इन्द्रधनुषी कल्पना के क्षितिज पर छविमान,
कंटकित दृग-भंगिमा से खींचते थे ध्यान।

पù-मणि-से प्रज्वलित थे अरुण रूपाभास,
पर्वणी-से प्रतिच्छायित मदिर स्वप्न-विलास।
किन्तु, यह कैसा पतन? कैसी विवशता! हन्त!
किस अधम ने यों किया पल में तुम्हारा अन्त?

नियति के अनुदार शासन का कठोर विधान,
घटित अघटित का निहित जिसमंे रहस्य महान।
मारना ही काम जिसका, क्रूर मानों कंस,
क्या मरा, वह क्यों विचारे, काक या कलहंस?

दिव्य तारा-से लिए उर में अमित अरमान,
टूट कर सुख-वृन्त से मूर्च्छित गिरे अनजान।
ध्वस्त विवसन शिशिर-सा है फुल्ल स्वर्ण-सुहाग,
और पांशुल है, न जिसमें गन्ध, पिंग पराग।

अस्तप्रायः सान्ध्य दिनमणि-से विकल म्रियमाण,
टिमटिमाते दीप-से तुम हो रहे निष्प्राण।
पारिजात विच्छिन्न ज्यांे नन्दन-विपिन से कान्त,
छोड़ कर निज भोग, आया अवनि पर उद्भ्रान्त।

स्वर्ण-लूतों ने रचा तन पर कफन का तार,
उषा-सुन्दरि ने पिन्हाया तुहिन-कण का हार।
किन्तु, देखो मधुप मधु-लोलुप न आते पास,
सहचरी तितली न करती रभस रंग-विलास।

हृदय-द्रावक मृत्यु का परिहासमय सम्वाद,
अन्धकार प्रगाढ़-सा भग्नावशेष विषाद।
राहु-ग्रस्त शशांक ज्यों होता कला से हीन,
हो रहा त्यों अरुण मुख-मण्डल तुम्हारा क्षीण।

आह, विधि ने क्यों दिया वह रूप ललित ललाम?
निहित है, जिसमें चिरन्तन मृत्यु का परिणाम।
पर, मरण में क्या न जीवन का अमर उल्लास?
छिपा रहता बीज में ज्यों विटप का सुविकास।

मृत्यु तो है निखिल जग की एक शाश्वत देन,
सर्वथा निर्लिप्त उससे, अरे ऐसा कौन?
प्राण अपनी दिव्यता से चमक उठता नित्य,
मृत्यु की चिर देन देकर, ज्यों प्रखर आदित्य-

व्योम की स्वर्णिम प्रतीची परिधि में हो शान्त,
और फिर उदयाद्रि मंे है उदित होता कान्त।
सिन्धु के ज्यों अतुल जल को सोखता दिनमान,
किन्तु, फिर भी उछलता वह मुदित एक समान।

या कि जैसे सघन घिर बरस होते रिक्त,
और अजगव-से पुनः नभ में गरजते दृप्त।
क्या न वैसे ही खिलोगे ऊर्जस्वित, मुदमान,
कल्पतरु की डाल पर तुम नखत-से अम्लान?

अतः ऐहिक रूप पर आँसू गिराना व्यर्थ,
ढूँढ़ना जग में अपरिचित अमरता का अर्थ!
चल रही तकली मरण की एकरस अविराम,
और जीवन-तन्तु कत कर निकलता अभिराम।

(रचना-काल: मार्च, 1941 ‘हंस’, मई, 1941 में प्रकाशित।)