बारहमासी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
कठिन माघ की रैन, विकम्पित कदलि-पात-से गात।
अलकतरा-सा छाया कुहरा, दिन में निशि का ज्वार,
उजली गंगा में काली जमना की बहती धार।
हुए ठूँठ, फीके-मुख ठिठुरे वट, बरगद, बरियार,
नंग-धड़ंगे, विवसन, ऐंठे खा कर लू की मार।
जमा खून हो गया बरफ, सूजी-सी चुभती बात;
कठिन माघ की रैन, विम्पित कदलि-पात-से गात।
कोयल कूकी कू-ऊ, आया फागुन मास।
कागा बोले कदम-डाल पर खोले रस के द्वार,
पाँति-पाँति में भाैंरा डोले मद के पंख पसार।
मधु-चू-चू कर लगा बरसने, बौरे लीची, आम,
महक रहे बारहों आभरन फूलों के अभिराम।
पत्ती-पत्ती मतवाली हो झूम उठी सोल्लास;
कोयल कूकी कूऊ, कूऊ, आया फागुन मास।
खिला चैत रस-मंजरियों में उड़ा गन्ध-मकरन्द।
शंखपुष्प, वनगोभी फूले मुण्डी और मदार,
तृण-तृण में फैला आकर्षण, नवचेतन, गुंजार।
जीवन के पीले पतझड़ में दीपित प्राण-प्रवाल,
नवदल, अंकुर उन्मद पल्लव, कोमल किसलय-जाल।
भरे प्रकृति के अंचल मूँगे-मरकत से सानंद।
खिला चैत रस-मंजरियों में उड़ा गन्ध-मकरन्द।
गर्व-अन्ध वैशाख महीना, रणवाँकुरा, उदण्ड।
उठा बवण्डर बाल बखेरे चिर प्रचंड विकराल,
धूल उड़ाता, खंडित करता लता-विटप की डाल।
लू की सिहरन, गरम झकोरे, सायँ-सायँ गम्भीर,
घनी उदासी डोल रही हँसमुख मधुवन को चीर।
वज्र इन्द्र का कड़का अथवा शिव का टूटा दण्ड;
गर्व-अन्ध वैशाख महीना, रणवाँकुरा, उदण्ड।
अंगारा-सा घाम जेठ का, डहक रहे मन-प्रान।
तपती गरम तवे-सी धरती, धधक रहा आकाश,
जलते वन-उपवन तरु, तृणकन, हँसते आक, जवास।
मिट्टी से लड़-भिड़ मुड़ जाते खुरपे, फार, कुदार,
बने प्रेत-कंकाल झुलसते झाउ, पेड़ झंखाड़।
लू से नज़र छपाए बैठे वन-पंछी हैरान;
हाँफ रहा वातास जेठ का, तलफ रहे मन-प्रान।
निर्मल जलद-किरीट पहन कर आया उमड़ अषाढ़।
मदनमस्त गज अथवा बादल घन में विपुलाकार,
रूई के गीले गाले या रस की उड़ी फुहार।
चढ़ी पाट सरिता की दस दिशि में बह उमह, अपार,
दुग्ध-धवल लहरों से वर्तुल गर्वित वक्ष उभार।
त्रिभुवन के निरंग नयनों में धानी रंग निखार;
निर्मल जलद-किरीट पहनकर आया घुमड़ अषाढ़।
फूट पड़ी रस की बूँदों में सावन की मुस्कान।
गात बारहमासे, चाँचर कृषक रोपते धान,
मकई के मुरझे मोचांे में लहर उठे हरियान।
टर्राते मेढक डबरे में गाँवों के मटमैल,
कीचड़ से लथपथ, डग डगम, गीली-ढीली गैल!
लिपट गई सपनों में धरती मीड़ बजी अनजान;
फूट पड़ी रस की बूँदों में सावन की मुस्कान।
लहरा उठे फरेरे भादों के कजरारे श्याम।
कौंधे लपके, बादल गरजे, झिल्ली की झंकार,
पहन फेन के झा´्झन बोले सुर के उतरे तार।
रात अँधेरी, सन्नाटा है, भवराता तूफान,
तड़ित-फूल या चंचल जुगनू झाड़ों में सुनसान?
बुनते पाड़ नूर की झीनी इंगित में अभिराम;
लहरा उठे फरेरे भादांे के कजरारे श्याम।
बजा छन्द मन की बंशी में आसिन मनोभिराम।
कुँई, कास के उर-निकुंज में करती केलि-विहार,
विजय-किरीटिनि शरद सलोनी आई सुखमाकार।
खंजन से गति, नीलकंठ से नील क´्जु साभार,
हरसिंगार से कंठ-हार ले, कर कुसुमित शृंगार।
खिले ओस के फूल चटुल पंखिनियांे में छविधाम;
बजा छन्द मन की वंशी में आसिन मनोभिराम।
श्रेय-प्रेय-व्रत श्रद्धानत बन आया कार्तिक मास।
सुख सुकराती, दीपमालिका, छठ त्योहार समीप,
जले अँधेरे कोनों में लकझक-लकझक कर दीप।
दुलहन बनीं दुकानें, आतशबाज़ी की हुरदंग,
उड़ते छल्ले, बान हवा में ठुमकीदार पतंग।
अभिनंदित जीवन-विभूति से जन-अभिमत उल्लास;
श्रेय-प्रेय-व्रत श्रद्धानत बन आया कार्त्तिक मास।
अगहन जन-मन-भावन खेतों में लहराते धान।
रांगो, कतकी, दलिमा, दोलंग, रंगूनी, रमसार,
बादामी, कत्थई, सिलेटी रंगों में साभार।
लहर-लहर पुरवाई आती हल्की-मीठी धूप,
मटर, सेम की बेलें लतरीं, कुरथी गदरी खूब।
नन्दन की रंगिणि छवि उतरी दीपित शुक्र-समान;
अगहन जन-मन-भावन खेतों में लहराते धान।
पकी फसल की डलिया लेकर आया पौष उदार।
हवा नशीली लगी डोलने, लहराए अरमान,
मतवाली हो उठीं महक से दिग्वधुएँ छविमान।
मिट्टी के आँचल पर बिखरी मोती की मुस्कान,
ताल-ताल पर ठेका देकर गमक लगाते प्रान।
नहीं समाती खुशी हृदय में छलक पड़ी साभार;
पकी फसल की डलिया लेकर आया पौष उदार।
(रचना-काल: दिसम्बर, 1945। ‘परिजात’, जनवरी, 1946 में प्रकाशित।)