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रण-शृंगी / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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नहीं पिक-तान से ब्रह्माण्ड फटते!
नहीं शुक-तुण्ड से गज-शुण्ड कटते!
गहन खाण्डव कहीं हिम से दहकते?
कहीं भू्र-क्षेप से गाण्डीव चलते?
नहीं फूलों से दिग्गज को डराओ?
नहीं फूँकों से मन्दर को उड़ओ!

विनय से राम ने की सिन्धु-पूजा,
स्वयं चेतन अचेतन को भी पूजा।
सनन सारंग से नाराच छूटा,
घटा में जब तड़ित का तेज फूटा।
जलधि का दर्प, मैं का गर्व झूठा,
कड़क कर खर्च होकर शीघ्र टूटा।

उन्हीं नर-केसरी का रूप मानव,
बने जम्बुक, शिखण्डी आज लाघव।
चले रूई से घन को चीर देने,
लुटेरों से दया की भीख लेने।
न बलि-पशु से उठी गरदन झुकाओ!
न दुर्बल बन दग़ा की घास खाओ!

उखाड़ो जड़ अहिंसा की पुरानी!
बनो मत मार खाने की निशानी!
अहिंसा जीव का जीवन रही कब?
अहिंसा शरण अशरण की बनी कब?
धधकती आँच से ही धातु दुर्दम,
सुघड़ होती पिघल कर मोम रेशम!

ग़लत क्या सर्प में होना ज़हर का?
विहग का पास होना मुक्त पर का?
मिले वनराज को पंजे नखीले,
करे गजराज के जो गर्व ढीले।
मिली बेचैन सरिता को जवानी,
करे चट्टान को जो काट पानी!

ग़लत क्या जो मनुज ले खंग, बख्तर?
परशु, कोदण्ड, शूर तूणीर मुद्गर?
उठे रण-मन्त्र से दिक्काल बाँधे,
कनक-लंका कुशासन की कँपा दे!
कसीं मुश्कें धरा की खोल डाले,
बजें जय-शंख मारू रागवाले!

भगीरथ-साधना मानव करे जो!
धरा पर स्वर्ग से गंगा गिरे तो।
चले जो, सूर्य का स्यन्दन रुके तो!
अड़े जो, बिन्ध्य का मस्तक झुके तो!
लपेटे वासुकी को मेरु से जो!
मथे खारा समुन्दर रत्न दे तो!

नहीं मिलती है आज़ादी कथन से!
जनानी रागिनी के अनुसरण से!
नशीले तानपूरों के रणन से!
रसीले तानसेनों के वचन से!
नहीं निर्घोष से अम्बर फटे जो!
मधुर रस-पंख तन्त्री के कटे तो!

(रचना-काल: फरवरी, 1946। ‘विशाल भारत’, मई, 1946 में प्रकाशित।)