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शान चढ़े नयन-बाण / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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आसावरी धु्रपद

प्रमदे, तव नयन-बाण,
धधकते अंग-अंग अंगारे के समान;
जहरीले नयन-बाण।

तानो मत नयन धनुष कानों तक भ्रूकमान,
बन्द करो शरवर्षण, मुझको दो प्राणदान,
करते वे मर्मग्रन्थि का भेदन रक्तपान,
शान चढ़े हुए स्वर्णपंखयुक्त, वेगवान-
प्रमदे, तव नयन-बाण।

करते जड़ को चेतन, चेतन चेतन को निश्चेतन,
क्षण-क्षण में मदिरा के झागों का मदवर्षण,
सागर के अन्तस्तल में भीषण आन्दोलन,
चमकाते अम्बर में स्वर्णतड़ित दीप्तिमान;
प्रमदे, तव नयन-बाण।

तन्मय होकर तुममें अर्पण कर मेरापन,
कैसे मैं हृदय लगूँ शरावरण के कारण?
कैसे मैं डालूँ तव ग्रीवा में भुज-बन्धन?
खींचो मम अन्तर से विषमय जाज्वल्यमान-
फन काढ़े नयन-बाण।