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पता नहीं क्या समझा उसने / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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पता नहीं क्या सूझा मुझको?
उस दिन जब कह दिया देख कर मैंने उसको-
‘देखी नहीं सुन्दरी तुम-सी मैंने अब तक!
भात्र एक चितवन से अपनी-
चुरा लिया तुमने मेरा मन!
मेरे अन्तर के अभिव्यंजन तीक्ष्ण बाण बन-
धँसे मर्म में उसके घुस कर!
दौड़ गई लालिमा कपोलों से उसके कोनों तक!
देखा मुझको उसने एक नज़र, पर दिया न उत्तर!
चली गई वह टेढ़ी बरौनियोंवाली निज सिर नीचा कर!
पता नहीं क्या समझा उसने?
(सितम्बर, 1976)