भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जिज्ञासा / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:25, 18 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रामइकबाल सिंह 'राकेश' |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जब चला चिन्तना की कड़ियांे में महासिन्धु को मैं कसने,
तब उठ कर उसमें एक लहर की बिन्दु लगी मुझ पर हँसने।
जब चला नापने मैं अनन्त को अपनी मति-गति से परिमित,
खिलखिला उठा वह नभ-नयनों के महायाम को कर कम्पित।

होती अचिन्त्य की जिज्ञासा से मेरे मन में उथल-पुथल!
करता जितना विस्तृत मैं अपना दृष्टिपटल,
लगता विशाल उतना रहस्य का दिग्मण्डल!
हो रहे महत-अणु को पढ़ने के मेरे अनथक यत्न विफल:
दर्शन-पथ में अमूर्त्त को लाने के भौतिक साधन निष्फल!

जब अन्धकार के घनावरण में तत्त्ववस्तु को टटोलने,
उड़ चला कल्पना के पंखों पर दिगदिगन्त को मैं धुनने;
तो डाल दिया संशय के अर्णव में सहसा मुझको किसने?
जब चला बाँधने मैं विराट को सीमा-बन्धन में खण्डित,
तो मेरी लघुता को लीख कर वह अट्टहास कर उठा त्वरित।

क्या परम अगम का अर्ध अंश यह विश्व-भुवन?
जो व्यक्त सुष्टि में भौतिकता का समीकरण।

बन गया मर्त्य जो देश-काल के अभिमुख होने के कारण।
रह गया शेष जो अर्ध अंश वह दिव्य यवनिका से आवृत,
जो देश-काल से परे स्वयं अन्नाद अमृत!
होता न काल-कृत गरल-दंश से जो पीड़ित।

क्या मर्त्य-अमृत के सन्धि-बिन्दु पर होता रह-रह कर क्षण-क्षण,
परिच्छिन्न देश से सान्त और शाश्वत अनन्त का आत्मरमण?
जब चला देखने मैं अनादि की गरिमा को हो कर बिस्मित,
तो खड़ा हुआ मेरे समक्ष वह प्रश्न-चिह्न बन अनुत्तरित!