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प्रिय, जो गई चली / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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प्रिय, जो गई चली;
फिर वह आ सकती न हवा-सी,
युगावली पिछली।
पवन-पंख पर प्रिय, तेरे बिन,
उड़े चले जाते मेरे दिन,
तेरी धुन में तारे गिन-गिन,
मेरी आयु ढली।
प्रिय, तेरे मग में चलने से,
कलुष मलिन मल के गलने से,
पल-भर ही मन के जलने से,
पलकें बन्द खुलीं।
तेरी वीणा मेरे भीतर,
झंकृत रहती सरगम बन कर,
क्यों मैं ढूँढूँ विह्वल होकर,
तुझको गली-गली।
(20 दिसंबर, 1973)