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प्राण-सर्जन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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मैं जीवन के कठोर हीरे को दुर्लभतर,
चमकाता, उसमें प्राण-सृजन कर रूपान्तर-
भर कर विद्युततरंग, चुम्बक का आकर्षण,
करता उसकी गोपन सुषमा का अभिव्य´्जन।
बन जाते मेरी छेनी से घिस कर, ढल कर;
हीरे के नोकदार टुकड़े निर्दोष, सुघर।
मेरा जीवन भी कोरा कीलदार पत्थर,
हो सकता जो खराद पर चढ़ कर सुन्दरतर।
मिट्टी का बना नहीं यह निखिल भुवन शोभन,
लोहे के तप्त पिण्ड से उसका सृजन-
उल्कापिण्डों की दुर्दम झड़ियों से घिर कर,
ज्वालामुखी की लपटों से बन कर भास्वर।
क्षण-क्षण कर अपने केन्द्रबिन्दु को आन्दोलित,
तप कर्मयज्ञ के अग्निकुण्ड में धूमरहित;
बन सकता छन्दहीन जीवन का धातु विषम,
शत-प्रतिशत विद्युतप्राणशक्तिमय, स्वर्णोपम।
(‘किशोर’, नवम्बर, 1973)