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हंसावर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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छिछले पानी में एक चरण के बल पर,
लम्बी ग्रीवा को मोड़ खड़े दलदल पर।
पंखों के नरम लबादे श्वेत, अबीरी,
आँखों की पुतली अरनि-सुमन-सी पीली।
दन्दानेदार चोंच नीचे से काली,
ऊपर से लिए हुए बादामी लाली।

चरते भास्वर पंखों से कज्जल अंजन,
हंसावर नहीं, खिले सरसी में पंकज।
झूमर बन कर किन्नर-कण्ठों से गाने,
मिट्टी के दामन पर दुलार छितराने।
रीते सर में भरने नूतन सुर मादन,
तुम आए, करने उद्वेलित अन्तर्मन।

आया बसन्त, खुल पड़ीं रंग की झीलें,
बिखरे झूमके प्रसूनों के रंगीले।
तुम जाओगे जीवन के दुर्गम पथ पर,
गुंजानशून्य अम्बर में ऊपर, ऊपर।
ओ परदेशी वारुणकुमार, तू मत जा,
दुर्लभ है मधुर मिलन का क्षण, तू मत जा!

हे पुष्करिणी के अरुणवरण इन्दीवर,
दो दिन के पाहुन, सलिलशयन हंसावर।
शत-शत मनहरण छन्द तव गतिछवि संचर,
जनगण के लिए क्षेमकर हो तुम प्रियकर।
झरने, द्रोणी, चिनार-वन कानन, कन्दर,
सुन्दर तुमसे ही पृथ्विी का पम्पासर।

छाया घन में वर्षों का ध्वान्त पुरातन,
तुम गान-निरत करते विकीर्ण मणि-कंचन।
मानव मानव के बीच सहसफनवाले,
फुफकार रहे विग्रह के विषधर काले।
तुम दिव्य प्रेम के बुनते ताने-बाने,
बन्धुत्व, एकता के परिधान सुहाने।

मत बनो अतीन्द्रिय चिर असीम के बन्दी,
तुम जुड़ो भूमि के संग गगन के पन्थी।
सींचो वाणी के चर्चस से भू का मन,
सुमनस्यामान हो अमर राष्ट्र का जीवन।
दो खिला किरण के फूल गन्ध से मादन,
जनगण के मन में तुहिनप्राण निश्चेतन।

(‘जनता’, 7 जनवरी, 1951)