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मधुऋतु / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
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कामधेनु पृथिवी के स्तन में
भरती मधुऋतु मधुकण,
अमृतपान करने का देता
दक्षिण पवन निमन्त्रण।
रूपरंगरसछन्दरागमय,
महक उठा जीवन परागमय।
गन्धयुक्त निःश्वास छोडते-
शस्य-क्षेत्र गिरिकानन।
करती प्रकृति-वधू सर्वार्पण,
खिसका कर अन्तर्पट गोपन।
बँधा प्रेम के आलिंगन में-
लोकधरा का यौवन।
नहा रहा ईंगुर से उपवन,
छवि का खुला चित्रपट नूतन,
कुछ मिटता, कुछ बनता भीतर-
रंगों में सम्मोहन।
स्वर्ण रोचनाओं में मधुकर,
गाता कुसुमदामदोला परं
झोंके खाता अम्बर, पिक के-
कल निनाद से मादन।
यह वसन्त की आग जलाती
अंगारों के फूल खिलाती।
कितनी तप्त व्यथाओं से भर
उफन-उफन उठता मन।