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आता है विराट वामन बन / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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करता अन्तर्मन अनन्त के चरणों में अभिवन्दन,
सत्यात्मक प्रतीति का रागों ध्वनियों में अभिव्यंजन।

आकर चिर-नूतन पहेलियाँ,
देने लगती हैं चुनौतियाँ
नहीं जान सकते तुम शब्दातीत तत्त्व को गोपन।
चले गूँथने सिन्धु-लहर को,
खण्ड-खण्ड करने अम्बर को
उठता है खिलखिला तुम्हारी लघुता पर वह प्रतिक्षण।
कस्त्वं, कोऽहम् के इति-अथ में,
जिज्ञासा के दर्शन-पथ में
रह जाती क्या नहीं कल्पना मात्र चरम अवलम्बन।
अनन्तत्व का चक्र निरन्तर,
जयध्वनि करता स्तब्ध दिगम्बर-
करती गहन मौन को पृथिवी नत होकर आत्मार्पण।
आता है विराट वामन बन,
युग-पथ में कर चरण-संचरण,
परे विदित से बँधा गणित के अंकों में चेतन मन।
अन्तर्प्रांगण में अनन्त के,
महाआयतन में दिगन्त के,
अहरोरात्र मिलते रहते विज्ञान-पुराण चिरन्तन।