(महाभारत अनुशासनपर्व के अन्तर्गत धर्मात्मा तोता और इन्द्र का संवाद)
एक मांसलोभी मृगयाप्रेमी निकला वन-पथ पर,
देख मृगों को सन्धाना उसने विषमय तीखा शर।
लक्ष्यवेध कर सका नहीं जो घुसा एक तरुवर में,
लगा सूखने वह विषज्वाला से उस वनप्रान्तर में।
बहुत दिनों से एक अनोखा शुक्र रहता था उस पर,
सुख-दुख में सन्तुलित दृष्टि रखनेवाला करुणाकर।
था उसमें ही एकचित्त वह आश्रय उसका पाकर,
अतः सूखने पर भी जाता था न कहीं वह नभचर।
आता-जाता कहीं नहीं था योगनिष्ठ तोता वह,
उस तरु के ही साथ सूखता चला जा रहा था वह।
चारा चुगना छोड़ चुका था, शिथिल हो गया था वह,
बोला तक जाता था उससे नहीं, मृतक-सा था वह।
विस्मय हुआ पाकशासन को उसके तपश्चरण पर,
उतरा वह पृथिवीतल पर मानव का तन धारण कर
पूछा उसने, ‘हे कृतज्ञ शुक, भक्तिमान प्रियदर्शन,
करते तुम किसलिए कहो इस शुष्क वृक्ष का सेवन?
छोड़ न देते शाखाओं से रहित विटप को क्यों अब?
सिन्दूरी मीठे-मीठे फल रहे नहीं इस पर जब,
शक्ति हो गई नष्ट, क्षीण हो गया सार भी इसका,
रहा न लेने योग्य बसेरा जर्जर प´्जर जिसका।
यह दुष्कर हठयोग तुम्हारा करता मन को मन्थित,
विहगनिनादित यह सुरम्य वन जिसमें तरुगण अगणित।
सर्वकामफल, नीलविलोहित, गन्धकुसुम से वासित,
खगकुल के विहार-सुख के हित जिनमें कोटर विस्तृत।’
सुनकर बात इन्द्र की तोता आर्तभाव से बोला-
‘इसी वृक्ष पर जन्म लिया, शाखादोला पर डोला।
होने दिया न रिपु से त्रासित मुझे नियन्त्रित रखकर,
शिशु-सा शैशव में पाला इसने मुझमें साहस भर।
दयाधर्म के पालन में ही रहता निरत निरन्तर,
जाना नहीं चाहता मैं अन्यत्र यहाँ से उड़कर।
करता हर्ष प्रदान लोक में दयाभाव किल्विष हर,
करना दया दूसरों पर ही सात्वत धर्म पुरन्दर।
जब समर्थ यह था, तब मैंने सुख के उस अवसर पर,
जीवन धारण किया इसी के हृदयप्रान्त में रह कर।
छवि इसकी छिन गई आज जब त्यागूँगा न इसे तब।
हो सकता कृतघ्न अधिकारी आत्मसम्पदा का कब?
कहा इन्द्र ने यह सुनकर ‘शुक, तुम मुझसे माँगो वर’
‘माँगा उसने, ‘पुनः पूर्ववत कान्तिमान हो तरुवर।’
किया अमृत से देवराज ने दग्ध विटप को सिंचित,
फिर तो वह हो गया मनोरम, पर्णाभरण विभूषित।