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एक अंश मेरे प्रकाश का / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

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एक अंश मेरे प्रकाश का भुवनविभाकर,
मुखरित जिसमें वृहत्-रथन्तर के गायन स्वर।
रश्मि-रश्मियों की विकीर्णकर कलुष तिमिरहर,
निकल रहा आनन्द फूट कर मुझसे बाहर।

कवि कवियों का भी मैं अग्निरूप वैश्वानर,
मेरी ग्राम-मूर्छना देती त्रिभुवन को स्वर।
टंकारी जाती है मेरी वीण जिस क्षण,
उठता है झनझना विश्व का अन्तर उस क्षण।

महाआयतन पर दिगन्त के मेरा नियमन,
करते क्षर-अक्षर मेरी विधियों का पालन।
चिन्ताओं की रेखाएँ मेरे ललाट पर,
खींच नहीं सकते भीषण तूफान बवण्डर।

मेरे लिए शरद में चक्रवाक, सारसगण,
करते आगत-नूतन के सरगम का गायन।
भरता चिर तारुण्य हृदय मंे तूज प्रदीपन,
महानन्द सागरतरंग में गन्धपूत मन।

मेरे बल पर टिके वायुमण्डल, भूमण्डल,
नेपचून, यूरेनस, केतु, शुक्र, शनि, मंगल।
लव-निमेष-युग मरे संवत्सर, मन्वन्तर,
मेरा अन्तर्मन अनन्त के साथ एकस्वर।