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महारात्रि / गिरिजाकुमार माथुर

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(1)

मैंने यह सब सहा है
लाखों वर्षों का अनबीता संताप
मुझे पिता की धातु बूँदों से होकर मिला है-
यह औरस यातना
कान्तारों, गुफ़ाओं के जन्तुगंधी अँधेरे में
तैयार खड़ी मृत्यु की
दिन-रात पीछा करती है
खड़े नाख़ूनों वाली छाया
पशु-प्रेत की,
तलुवों के नीचे सरकते हैं
ठंडी, चिकनी चमड़ीवाले साँप
काली चलती रात से
सिर पर जंगल के टपकते हरे कुहरे में
लटकते हैं
कटी जीभ लपलपाते अज़दहे
चारों तरफ़
या तो भनभनाता है सुनसान
या डकारता, टर्राता है कान्तार
मोटी थूथन से सूँघती है
भिंचे हुए दाँतों से गुर्राती रात-
आता है
जिघांसु जंगल की विषहरी कालौंच सा

मानुष गंध सूँघता
धंुकारता शरभों का झुँड
पंजे पंख वाले उड़न सिंह
झपटते भूमि से, आकाश से
मुँह मार पूरा नरमुंड धड़ से काट खा जाते
दौड़ते हैं विक्षिप्त कई सूँडवाले
भुशुंड
बदसूरत तीन-तीन खींसें उठा
फाड़ते हुए पेट
लटकती हैं आँतें
छूटते हैं ख़ून के फव्वारे
किटकिटाते लड़ते हैं पगलाए ओरांग
छूट जाती हैं फाड़ी छातियाँ
ख़ून सने पिचके गलमुच्छोंदार जबड़े
उखाड़ी मरोड़ी हड्डियाँ
कुचले हुए कमज़ोर
मांस की कीचड़ में नाचते हुए जबरीले-
खरखरी चमड़गंध जीभ से चाटता
देह छीलता अनियम संसार
लीलता हुआ गर्तों के जबाड़े में
भुनगों की तरह बड़े-बड़े जीव
घिनौने चौड़े पैर गड़ाती
चपटी छिपकली का दैत्य पेट
अनादि जन्तुभक्षी न्याय
आरे की तरह मोटी गर्दन
दाँतेदार पूँछ फटकारती नियति
चबाती हुई ज़िन्दा लोथड़े
चौड़ाए पुट्ठे, कड़े पैर, हस्तिलिंग गड़ा
मादाओं को चीरती
मैथुनी सृष्टि
दबोचे हुए अनगिनती जीवों की पाँत
लिंग-मेख़ें में पिरोई हुई स्याह लाल योनियाँ
सिर्फ़, आहार और मैथुन-
सिर्फ़, स्फन्दन और शवन-
क्या इतनी ही नियति है इस सारे चमत्कार की
यह अटल भवितव्यता जन्मधारी अंधकार की
यह मूल्यातीत सृष्टि
जो कीचड़ की कालिमा की रचना है
जो शायद एक नियमबद्ध दुर्घटना है
आकस्मिक संयोग की
दुर्घटना के तर्क की दुर्दम अनिवार्यता
घटाटोप सर्वज्ञ भय की घोरता में
एक निरीह लौ को छुपा रखने की याचना
विकराल मुँह फाड़े
किसी अन्तहीन खोखल के बीच
अदृश्य बँधे पुल से
कोई दिशाशून्य बेतहाशा जाती हुई रेल
एक सीलबन्द गाड़ी
घन्नाते हुए अचेत गोल डिब्बे
किसी सर्कस के मृत्यु कूप में
अन्तरालों की पटरियाँ-
अनारंभ छोर से लापता मंज़िल की ओर?
कहाँ से कब चली थी
किस यात्रा पर?
सहसा पुल टूट जाय
समा जाय पूरी रेल निश्चिन्ह अवात में
कोई छुटा हुआ डिब्बा
उलटते-पलटते उलझा रह जाय
टूटे गुत्थल अतन्तु केबिलों में
लटका एक कील पर
अनाधार तैरता-
वह तर्कहीनता एक स्थिति बन जाय
स्वेच्छाचारी परिणति हो स्थायी सी नियति
ऐसी स्वयंसिद्धि
नियम की अनोखी विडम्बना
वही टेढ़ा-तिरछा कोण मेरी धुरी
वह मेरा जन्मलोक
वह पूर्व और पश्चिम
वह ऊपर और नीचे के दो ध्रुवांत-
वह
इस सारी कथा से अजान
भटकते अँधेरे में पैदा हुई दुनिया
मेरा हम कर्म अपना ही अर्थ खोजता हुआ
हर यत्न के निकट आ लक्ष्यबिंदु हटता हुआ
हर कामना का अन्त एक बाँझ असलियत में
हर विफलता मूल्यवान हुई
जन्मांतरों में बार-बार
अपनी कालिमा ही धोने में-

(2)

मुझे याद है-
वह गुस्से से लालभभूका पृथ्वी
ज्वालामुखी की मुँदी आँख फाड़ती
खोले हुए निर्दन्त पोला मुँह
सख्त मसूड़ों से गड्ढे
थैली की तरह लटकता पाताल
जिसमें झाँकते हुए
भय की एक गरम सूल
आँत से पैठकर शीश पार निकली थी
जैसे देख लिया हो मैंने

एक साथ तीन पीढ़ियों को जनते
मातामही योनि कोख से
चेतना पुँछ जाती है
सहसा सारी दुनिया चक्कर खा जाती है
एक भयानक नीचे को खिंचाव-
डर से चिपकाकर पकड़ता
ख़ौफ़नाक आकर्षण
वशीभूत कूद जाने का-
बाघ की दहाड़ पर
पेड़ से धप धप टपकते
आँख मुँदे बंदर
छिपकली के आसपास
सकते में मँडराता पतिंगा
क़ातिल के सामने
असहाय बच्चा
वह भय-
हौलनाक तेज़ धुकधुकी
की बदन भर में रफ़्तार
जब हिली थी हड़कम्पों में ज़मीन
अर्राई थी पत्थरों की लेई
मोटी दग्ध धार
गड्डमड्ड निकले थे उगले हुए
भूभुल चिनगारियों के वभ्रु बादल
गरम राख सा आसमान
भूमि की आसन्न गड़गड़ाती प्रकम्पना
जीवों के बदन में बनी
मृत्यु पूर्व की थरथरी
गले में बिनरुके अकारण उठा रोदन
अंगारों की आँधी में
हज़ारों भुने पक्षियों की वर्षा
उभरते बड़े फफोले सी भीड़ें
ऊपर उठे जलते खजूर बाल
पीछा करती धातु की नदी
और फिर मौत का घटाटोप सन्नाटा
गरम लूकों की झपटती झाँय-झाँय-

(3)

यह मैं-
इस निर्मम कपाली पक्रिया के सामने
घास की तरह जलता हुआ आग में
पिसा चूना होती हड्डियाँ
एक नाचीज़ तिनका
बलि लेती कढ़ में
काग़ज़ एक गलता हुआ-
मीलों दरकते मोटे खुरंट की पीठ पर चिपका
एक कैटर पिलर
जीने के हाहाकार में
सिसकता एक कीड़ा
बाहर और भीतर की यंत्रणा
आपस की भय, घृणा, अवश्विास
मृत्यु के हर मिनट दंश से घिरा
ममता और प्यार और मोहक आनन्दों की
सुकुमार देह का आसन बना बैठा हुआ
सदियों से
बदसूरत काला एक तांत्रिक
कट्टर, हठी, क्रूर शक्ति पशु
अविवेकी, ज़ालिम खलनायक
कटे हुए पलक
आँख की कोटरों से
बड़े-बड़े खूँखार डैयो का
बाहर निकलता
धिनांध अंधकार
मेरी दुनिया को हर बार डसता हुआ

क्या यही मेरी अन्तिम परिणति है
तब क्या है सार्थकता
जन्म और मरण के बीच
एक छोटे अखंड वर्तमान की
जो मेरी उम्र है,
जो एक नाशवान देह की ख़ामोश चीत्कार है

(4)

उड़ रही है मेरी आँखों के आगे
एक सीले हुए धुएँ की मोटी आँधी
एक सफ़ेद कुहरे की सरसर निकलती
चौड़े अरज़वाली धारा-
चारों तरफ़ जंगल काजल से बने
एक जुट डाँग कोयले की
चमकती हैं मेरी ही आँखें
जानवर की तरह
घूरती हुई लाल लूघर सी पुतलियाँ
लकड़बग्घे
की
मेरी पुतलियों में अक्स देती हैं
अँधेरे को फाड़कर भीतर देखने की असहाय कोशिश

लगातार-
बहते चले आते हैं
चेहरे और आकार
पूरे के पूरे लपटों भरे नगर
धुआँ देती बुझती बस्तियाँ मिट्टी के परकोटे
पुरातन नगरियाँ
असभ्य हमलावरों से घिरीं
लाक्षागृह की तरह धू-धू जलती हुईं

ईंटों का एक बड़ा दहकता भट्ठा
है इतिहास
चींटों की तरह चटचट भुनते हुए लोग
परिणति सभ्यताओं की
वे जो जानते नहीं थे अपना अपराध
सिवा इसके
कि उनका देश
बर्बर आतताइयों से ज़्यादा खुशहाल था
कि उनका रंग
बर्बरों के रंग से कुछ थोड़ा मटमैला था
कि बर्बरों के देवता
बलि लेते थे और तरह
कि उनके लोग
ज़्यादा शब्द वाली कोई बोली बोलते थे
और उनकी औरतें
पराई थीं
इसलिए ज़्यादा मजे़दार थीं
और मुफ्त मिल सकती थीं-
-कुहरा अब नंगा होने लगा है
नंगी की जाती माँ-बेटी पत्नियों के साथ
खिंचते हैं सैकड़ों वक्ष सफ़ेद धुएँ में
गिरती हैं धुंध में बलिष्ठ दीवारें
चित गठीली सिलवटों पर
टूटते हैं क़द्दावर बर्बर
हर जीत के नाटक का बनता है भरतवाक्य
अपमानित जाति के चेहरे पर थप्पड़-सा
टूटता बलात्कार-
मैं वहाँ था
ग्लानि की बरसात घूँट भर पीती हुईं
लांछित जाति में
खलनायक इतिहास की उस क्रूर हँसी में
जो अब तक जंगल का परिशिष्ट है
जो आदमी का नहीं
आदमी के भीतर जानवर का न्याय है-

(5)

उनका क्या कसूर था
सदियों में उन सबका
जो उनके ऐयाश, जोंक शासक
आपस में दोस्ती का दम भरते रहे
और दुश्मनी का ज़हर जमा करते रहे
वे जो जीना चाहते थे
प्यारी थी जिन्हें जिं़दा रहने की ममताएँ
विवश किए गए हत्या के लिए
हर बार
हर व्यवस्था में-
कहाँ हैं मानवीय मूल्य
कहाँ हैं ईश्वर
कहाँ हैं धर्म, अध्यात्म, आदर्शों के फ़लसफ़े
कहाँ हैं इंसानियत के ठेकेदार
वे संत, महापुरुष, अवतार
कहाँ हैं राजनीतिक ढिंढोरची
सामाजिक न्याय के किताबी-मनीषी
कहाँ हैं वे त्यागी
बुद्ध, ईसा और गांधी-
सब देवता झूठे लगते हैं
यह दुनिया है अब तक जन्मांध राक्षसों की
आदमी का विधाता
नहीं है कोई देवता
हैं हैनीबाल, सीज़र
सिकंदर, चंगेज़, नेपोलियन, ज़ार, हिटलर
सौदागर के वेष में
जाल बिछाने वाले मकड़े
गोरे भूरे तिलचट्टे
और लोहे की मूँछ वाले
ख़ूनपिए पुतले
नवयुग के उप-ईश्वर
सूरजमुखी, सूर्यपुत्र, पैग़म्बर-

(6)

मैं वहाँ था-
जब बिकते थे चमकते आबनूसी बदन
साँचे में ढले
मादरज़ाद बरहना जवान औरतें
बिक्री की क़तार में
गु़लाम जिस्मों के इम्तिाहन
भाड़े का टट्टू
जबरजंग सौदागर
तस्कर कप्तान
घूँसा मारता है मुँह पर

आबनूसी बदन बुत है
सिर्फ़ बहती है नाक से ख़ून की धारा
मोटी उँगली घुसा देता है एक की योनि में
माल कितना खरा चुस्त है
दूसरी की छाती मुट्ठी से
पकड़ता टटोलता है
माल कितना करारा है-
जिसके निकला था ख़ून
वह गर्दन उड़ जाती है
जिसकी छाती कम कड़ी थी
वह छाती कट जाती है
-वह माल ही निकम्मा था
जो भारी ज़ंजीरों या रस्सों से बँधी पाँत में
ख़ून खौलती सिमून में
भैंसे की तरह
बिना हाँफे चट्टाने खींच सकते हैं
जो जुम्बिश भर तड़पे या कराहे बिना
पसीने सनी भट्टोंदार पीठ पर
गैंडे की खाल बनकर
कोड़ों की भयानक मार सह सकते हैं-
जो मोटी मशक्कत के बीच अधनंगी
उत्तेजित करने के लिए
मालिक या मेट के पशुलिंग
एक साँस में चूस सकती है
जो बिकी देह आज्ञा पर खोल
अश्व मैथुन सह सकती है
वह मांस की जिन्स का मुनाफ़ा भी नहीं है
जो ठहरी थी दर हर जिस्म की
झिकझिक करता रहा
भुखमरा बाप दोग़ला
क़ीमत बढ़ाने को
फिर घिघियाता रहा बड़ी ेदर तक
चामख़ोर-
ले गया वही बार-बार गिनकर
सात बच्चों की
भूखी मौत कुछ और टालने को
मैं ही था-
वहाँ कोड़े के फूलते निशान पर
जबरन गोदी जाती अधनंगी देह पर
सदियों की
उस चामख़ोर भूख में
क्रुद्ध लांछनभरी नज़रों में
अपमान और गुस्से को विवश पीती हुईं
सामने खड़ी की खड़ी
पिटी पिटी घायल
लेकिन अपरास्त आँखों में-

(7)

हम अंतरिक्ष हैं-
हमारे भीतर भी दूर तक खिंचा है-
अटूट अंधकार
अनहोनी शक्लोंवाला सन्नाटा
जलते हुए अतृप्त सूर्य
गरम यादों के उत्तप्त पत्थर
मरे केतु
लगातार दहक कर बुझते इच्छा उडु
अधबने नक्षत्र
रहेंगे जो अधबने-
यह अँधेरा एक माप है
जिस पर हम तौलते हैं
बाहर की हर नंगी उजली असलियत
हमारी मरीचिकाएँ बनती हैं कसौटी
हर यथार्थ की
हमारी प्रतिक्रियाएँ दर्पण हैं
जिनमें हम देखते हैं दूसरों का रूप
देते हैं हर वस्तु को
निपट उसका नहीं
अपना आकार
हर बात में बाँधते हैं
अपनी आत्मीय मिथ्या की छाया
पाप-पुण्य की निरंकुश कसौटियों के पार
एक निराधार लालसा
जो जितनी निराधार है
 उतनी ही स़च होती है-
हमारी इच्छाएँ
अपने को नहीं
हर और चीज़ को अनुशासित
करने की माँग हैं
क्योंकि हर इच्छा
इस दुनिया से आगे
एक पूरी अलग दुनिया है
एक एक छोटा ब्रह्मांड
जो होता है बिना सच हुए भी-
देखो, काँपती लालसाओं के इस डबकते चाँदने में

विरल घने तिलिस्म में
कितनी चीज़ें एक साथ आँधियांे सी चलती हैं
होती हैं भीतर लगातार
लाखों चमकती आँखों की बारिश
हज़ारों क़िस्म के चकनाचूर चेहरे
असंख्य आवाज़ों की ढेरों में उड़ती चिन्दियाँ
आँखें ख़ूबसूरत चमकत पानी सी भोली
हर बात पर एक मासूम प्रश्न सी
या टकराकर बरजती हुईं
समर्पित देह के नशे से झिपीं, मुग्ध
वहशी आमंत्रणों भरी
हल्के-हल्के बुझती हुई प्यास में बन्द-
या दूर देखतीं उदास
घिरती साँझ में
बूँद की तरह अटकी हुई
एकटक लगातार
कितनी तरह की आँखों से
की है मैंने बातचीत
इस अंधकार की
बुझती आँखों की कथाओं की
कितने प्रश्नों की बात
सुख के, आनन्द के
उत्सर्ग के, विद्रोह के, बलिदान के
त्रास, कष्ट, रुदन, शोकान्त के
क्यों मिला है अन्त में अर्थ सारी चीज़ों का
आदमी की बड़ी संभावना का अभिप्राय
डबकता चाँदना चलता चला आया है
क्रांतियांे की तपिश, लौह न्याय, गरम इस्पात
लोमहर्षक क्षणों के टपके ख़ून से
शांत ठंडे खेतों तक
ऊष्म शरीरों के विद्ध अंगों तक
उल्टे शीशों में ऐंचे कटे अक्स
पेट तक उठकर जुड़ी पिंडलियाँ
फँसी उँगलियों में उँगलियाँ
खिड़कियों में सीमेंट चुने
जवान वक्ष चोलियों समेत
पंजेदार सीढ़ियाँ
लम्बी सुरंग बनते पलंग
कुर्सियोंनुमा खोखली बोतलें
लंबी लटों में फँसी जाँघें
जूड़ांे में फँसे लिंग
रेस्त्राओं की आईनोंदार दीवारों के भीतर
कपड़े उतारतीं नुमाइशी औरतें
फानूसों में शीर्षासन करते
अकडू आदमी
मुच्छलदार मर्द
जूइनपुँछी काग़ज की नेपकिनें
मुड़ी-तुड़ी
उँडेल दिए गए शहर
ट्रकों में भर भर कर
उफन रहे कूड़े के टीन
पृथ्वी पर
मलबा अब सभ्यता का बहता है
समुद्रों की गँदलाती छाती पर
आकाश में ज़हर
अंतरिक्ष में फेंक दिया गया निराधार
घूमता
आदमी का इस्पाती ढेर ढेर कूड़ा
सियामी जुड़वों की तरह
रीढ़ की हड्डी से जुड़े हैं एक साथ
सुविधा और सड़ाँध
आदमी और जानवर
मुँह की चिलम से निकलती है
आग की लपट
कड़वी घृणा
या मसलहत
या गुप्त स्वार्थ की पेचीदा रात
सहज आदमी की भाषा नहीं-
नहीं सीधी समझदार
निर्भय दो टूक बात अनबोला उत्सर्ग मगर
वानर से मेरे स्वरूप तक आते हुए
बीते करोड़ मनवन्तर
लेकिन मुझे जन्मे हुए
गए हैं कुछ थोड़े से लाख साल
जन्तुओं के बीच
विगत को, घटनाओं के बीच की कड़ियों को
सोच सोच
हँसने रोने वाला एक जानवर
एक कपड़े पहिने
बुद्धिमान प्राइमेट
गुरीला के खोल से निकला हुआ
एक बेहद ख़ूबसूरत
मन विचार भावना कल्पना से भरी
घनी ईकाई
लेकिन सभ्यता मेरी है सिर्फ़
कुछ हज़ार साल की
इसलिए
मेरे आचरण में अब भी
ओरांग लौट आता है
शायद इसीलिए मेरा मन
युद्ध, लूटपाट, हत्या की व्यवस्था से
अभी पूरी तरह कट नहीं पाया है
अभी सिर्फ़ पूरी हुई है
वनैली वहशत की यात्रा
रक्तकोषों में सोए जन्तु संस्कार
अर्धसुप्त घात़क प्रतिक्रियाओं की ज़ंजीर
टूटी नहीं है अभी
किसी आख़िरी सांस्कृतिक कड़ी पर आकर साम्य की
जहाँ से शुरू होते हैं
नए मानवी आचरण के
आत्मसिद्ध, मर्मद्वार-