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वृक्ष / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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हाथों में फल-फूल और आँखों में पानी
वृक्षों से बढ़ कर होगा क्या कोई दानी
खुद जलते, पर औरों को छाया देते हैं
हारे थके पथिक की पीड़ा हर लेते हैं
आस-पास जो भी विष है सारा पी जाते
साँस-साँस से फिर अमृत कण है लहराते
रेगिस्तानों को बढ्ने से रोका करते
बंजर धरती की छाती में फसलें भरते
पत्थर खाकर, फल देना इनकी आदत है
इनके दम से हरी-भरी प्यारी कुदरत है
वृक्ष काटने वाले अपने ही दुश्मन हैं
वृक्ष मीत हैं मानव के, उसका जीवन हैं।