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प्रेम गीत / यतींद्रनाथ राही
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एक दिया तो
धरें द्वार पर
फिर
तम में सो जाएँ
मन महकालें हरसिंगार की
छाँव बैठकर पलभर
और करेंगे क्या
सागर पर
देवालय में चलकर
पूजा और
अर्चनाओं से
किस की बात बनी है
इसीलिए तो
उनसे अपनी
अक्सर तनातनी है
जैसे चलते हैं सब
वैसे
हम कैसे हो जाएँ?
सन्नाटे हैं
महाशोर है
धधक रही ज्वालाएँ
सहमी-सहमी
कंपित-शंकित
दहशत भरी दिशाएँ
किसकी यहाँ कौन सुनता है
कहाँ प्यार है ममता?
हुआ प्रदूषित गंगाजल भी
मिले कहाँ पावनता
रक्तबीज
शैतान अमन के आँगन
ना बो जाएँ
साँसों का विश्वास कहीं यह
टूट न जाए देखो
धार तेज़ है हाथ हमारा
छूट न जाए देखो
देखे ज्वार उमड़ते कितने
महाप्रलय की हलचल
सृजन लिखे हमने आगत के
नव जीवन के प्रति पल
चलो आज फिर
उतर धार में
लहरों में खो जाएँ।
31.5.2017