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नेह बुने धागे / यतींद्रनाथ राही

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कुछ तो सुनें
किसी को समझें
कभी किसी की मानें।

विश्वासों के टूट गए हैं
नेह बुने धागे
हम
मृगतृष्णा के हिरना से
कहाँ-कहाँ भागे
आग लगी घर में
पानी की आस करें किससे
जो अंगारे फेक रहा है
पूछ रहे उससे
होश हवास संभालें
अपने
हित अनहित पहचानें।

फुटपाथों पर लिये कटोरा
ममता भटकी है
जान हमारी
मुद्राओं के पीछे अटकी है
गंगा जमुना की धाराएँ
हुईं विषैली फेनिल
सूखे
ताल पोखरे सारे
झील हो गयी पंकिल
देखें
हिया फटा धरती का
अम्बर महल न तानें।

कुरुक्षेत्र में फिर अपना ही
खून-पसीना उतरा
दिल पत्थर हो गया
कुर्सियों का अन्धा बहरा
कुछ तो शर्म करें
कुछ सोचें
कुछ बोलें बतियाएँ
इन तरसी-फैली बाँहों में
आओ, फिर भरजाएँ
प्यार अधर पर
बँधी मुट्ठियाँ
सारतत्व है जानें!

3.6.2017