गुनगुनाए जा रहे हैं / यतींद्रनाथ राही
पीर अन्तस में नहीं
संकल्प भी कोई नहीं है
क्यों मगर के आँसुओं से
पुल बहाये जा रहे हैं।
दूध, सड़कों पर बहे
या, पत्थरों के देवता पर
प्यास के सूखे अधर पर
तृप्ति धर पाता नहीं है
खून बह जाए
लगे अम्बार लाशों का कहीं पर
आदमी की आँख में
आँसू मगर आता नहीं है
मर गयी संवेदनाएँ
आदमीयत मर गयी है
और हम
नव जागरण के
गीत गाये जा रहे हैं
इस क़दर कीचड़ मची है
राजधानी में हमारी
सँभलकर चलती जुबाने
फिसल जाती हैं यहाँ पर
क्या नहीं मिलता
सियासत की गली में
धँस सको तो
कौन जाने किस्मतें
किसकी बदल जाएँ कहाँ पर
हैं बहुत ऊँची यहाँ
नक्कारखानों की अवाजें
व्यर्थ हम संस्कार की
ढपली बजाये जा रहे हैं।
क्या हुआ
अपने बुज़ुर्गों की
कमाई आबरू भी
डस्ट बिन में डाल दी है
नौनिहालों ने अगर तो
जो बची थी
चिन्दियों में उड़ रही है
आज कल वह मंच से
उठते हुए
नंगे सवालों अगर तो?
नाव अपनी कर चुके हैं
'नाखुदाओं के हवाले
डूबने का मन्त्र ही बस
गुनगुनाये जा रहे हैं।
15.6.2017