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चीखते कोलाहलों में / यतींद्रनाथ राही

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ज़िन्दगी
कितनी जिओगे
इन सुनहली अटकलों में?

बह रही
नदिया उफनती
ढह रहे हैं
पुल पुरातन
लिख रहा कोई यहाँ है
एक युग
जैसे समापन
हम खड़े
स्तब्ध से हैं
इन समय की हलचलों में
पाँव जकड़े हैं अँधेरे
पत्थरों के जड़ शहर में
भटकनें ही भटकनें हैं
रोशनी के छद्म स्वर में
सिर उठे हैं
संशयों के
चीखते कोलाहलों में
हाथ बाँधे
दीनता में
रत्न का आगार कैसे?
यह अखण्डित
कर सकेगा
खण्ड का स्वीकार कैसे?
सत्य स्वर बन्दी बने
कब शक्ति है
इन छल बलों में?
13.7.2017