भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमने झेले / यतींद्रनाथ राही

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:33, 23 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=यतींद्रनाथ राही |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कितने कर्म-कुकर्म तुम्हारे
आँख मूंद कर हमने झेले

चूनर मैली
चादर मैली
किसे ओढ़लें, किसे बिछाएँ?
पूजाघर के गंगाजल पर
होने लगी
आज शंकाएँ
अन्धे भक्त
देवता गूँगे
हैं लम्पट वाचाल पुजारी
संस्कारों की कल्पलता पर
निर्ममता से चलती आरी
धर्मनीति को चाट रहे हैं
राजनीति के पले सपेले।
कामी-भ्रष्ट
धर्म-गुरुओं से
लज्जित पावन परम्पराएँ
तार-तार होकर आहत हैं
रिश्तों की
मधु मर्यादाएँ
बार-बार
लुटकर पिटकर भी
कहाँ चेतना जाकर खोई
रोज़
छली जा रही अहल्या
खुले केश
पांचाली रोई
भोग रहे अन्धों के वंशज
खेल
शकुनियों ने जो खेले।
30.8.2017