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मुट्ठी भरी रेत को पाकर / यतींद्रनाथ राही

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जाने क्या मिल गया
मुझे यह
मुट्ठी भरी रेत को पाकर

कुछ घोंघे
कुछ शंख-सीपियाँ
कुछ लहरों की
कल-कल, छल-छल
पुलिनों की पसरी बाँहों में
आलिंगन के
अनबाँधे पल
लगने लगा मुझे
यह जैसे
मैंने बाँध लिया हो
सागर।

घुलती रही महक
हिमकणिका
ढलती रही किरण के आँचल
स्वप्निल नयन
मदिर अँगड़ाई
रतनारा होता अरुणाचल
फिर-फिर वही प्यास
पनघट है
फिर-फिर वही
तरसती गागर।

चलती रही कथाएँ अविरल
महाकाव्य रह गये अधूरे
प्राणों में रस रहे घोलते
अनहद के बजते सन्तूरे
बीती उमर बाँचते पोथी
रहे अनपढ़े
ढाई आखर।
2.9.2017