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विजय ध्वजाएँ / यतींद्रनाथ राही

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किससे कहें
कहाँ हम जाएँ
कौन सुनेगा मूक व्यथाएँ।

रहे देखते
धूल हो गये
वे सारे सतरंगे सपने
पर्णकुटी से राज महल तक
रहे नहीं कोई अब अपने
माया-मृग में फँसे रामजी
टूट गयी लक्ष्मण रेखाएँ।

कोई इन्द्र-कुबेर
कहीं हो
सब पर हैं दशकंधर भारी
स्वार्थ अहम् के अन्धे पन में
रीति-नीति-क्षमताएँ हारी
हरण हो रहे सीताओं के
बिलख रही
सूनी कुटियाएँ।

तड़प रहे हैं
वृद्ध जटायू
कतरे पंख पड़े हैं हतबल
महा पाप की पराकाष्ठा
आयी आज
ओढ़ कर वल्कल
महा शून्य में भटक रही हैं
कितनी
विरह जन्य पीड़ाएँ।

इधर शक्ति है
उधर भक्ति है
गरज रहा है बीच महार्णव
संकल्पों ने जहाँ ठान ली
सेतु वहाँ बन जाते अभिनव
फिर
अनीति के महाध्वंस पर
फहराएँगी
विजय ध्वजाएँ।

4.11.2017