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सान्ध्य-गीत / यतींद्रनाथ राही
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साँझ घिरी है
घन घहराए
एक नखत ने
दीप धरा है
तन एकाकी
मन एकाकी
पाँखी एक
डाल एकाकी
सुधि की एक किरन
खिड़की से
अँसुआयी पलकों से झाँकी
फूट गयी चट्टान
कोख से
अंकुर एक नया उभरा है।
सभी अकेले हैं भीड़ों में
उलझ रहे हैं सूनेपन से
राजमार्ग का पल-पल उलझा
अँधियारों के काले घन से
टकराए हैं शीश
किसी का
चीर खिंचा
दामन उघरा है।
रिश्तों के बाज़ार बिकाऊ
जो भी भरा बाँह में आकर
दुलराया छाती पर जिसको
गया अधर पर दंश चुभाकर
प्यार
छलावा है
माया है
स्वर्ण कलश में ज़हर भरा है।
जाने कौन नयी दुनिया है
करते हैं जिसका यश गायन
धुल जाएँगे जहाँ पहुँचकर
अपने सारे कर्म अपावन
किन्तु सुना
उस महालोक का
शासक भी अन्धा बहरा है।
5.11.2017