भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जाते हुए देखना / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:59, 23 मई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=स्वप्निल श्रीवास्तव |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसे जाते हुए देखना
एक तकलीफ़देह अनुभव था
धीरे-धीरे वह ओझल होती
जा रही थी
जैसे गली का मोड़ आया
वह मुड़ गई
अब उसे देख पाना कठिन था

मोड़ खतरनाक होते हैं
वह हमारा पूरा जीवन
बदल देते हैं

वह आएगी — यह कह कर गई थी
मैं यह सोच कर ख़ुश था
कि वह आएगी

इस तरह दिन, महीने, साल
गुजर गए — वह नहीं आई

मैं वहीं रूका हुआ हूँ
जहाँ से वह गई थी
और मुझे उसके रूकने की जगह
नहीं मालूम है