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धुंध भरे पथ / कमलकांत सक्सेना

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जब जब ऐसा ला कि मंजिल मिलने वाली है
तब तब सच मानो राह स्वयं प्रतिकूल हो गई!

जाने अनजाने क्या पाप किया है
अरे हाथ की रेखाओं ने?
इस्पाती दीवारें गला सके वह ताकत
छली रेत की बाधाओं ने।

जब जब ऐसा लगा कि कोई अपना होता है
अपना पाने की चाह स्वयं प्रतिकूल हो गई!

हमने बोये बीज सत्य के, झूठउगा है
बिछा सूर्य के घर अंधियारा है।
काव्य सुमन कुम्हलाये, रीते मधु के प्याले
पिये गरल ही अब बंजारा।

जब जब ऐसा लगा कि मन शंकर हो जायेगा
तब तब संघर्षी सांस स्वयं प्रतिकूल हो गई!

हम भी धुव्र हैं, दृढ़ प्रणधारी एकलव्य हैं
भला हार कैसे जाएँगे?
धुंध भरे पथ उत्साहों के नाम करेंगे
साहस के दीप जलाएँगे।

जब जब ऐसा लगा कि प्रीत तोड़ती सीमाएँ
नीर पी लिया नैराश्य स्वयं प्रतिकूल हो गई!