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मीत मेरे तू कहां है? / कमलकांत सक्सेना

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मैं अकेला बन्द कमरा, रात तन्हा, नम हवा है।
सांस चुगली खा रही है, मीत मेरे, तू कहाँ है?

अरमानपूरित लौटती है हर लहर,
तट मगर छू पाती नहीं है।
बनती सुहागिन प्यार लेकिन हर नज़र,
हर नज़र से पाती नहीं है।

गूँजता है बांसुरी से सुर मधुर, भीगी निशा है
रात रीती जा रही है, मीत मेरे तू कहाँ है?

मंदिरों की घण्टियाँ उल्लास देतीं,
मस्जिदों की आयतें उपदेश देती,
मन को सुकूं देती नहीं है।

गिरजाघरों में प्रीति-धुन जो मचलती, इक वफा है।
उम्र ढलती जा रही है, मीत मेरे तू कहाँ है?

पत्थरों की पायलें मुजरा किये हैं
मन को पवन भाती नहीं है
लाख गा लें, तुम बिना, सूने सभी सुर
गमगीं ग़ज़ल तो आती नहीं हैं

तम सबेरा, दूर सूरज, पास मौसम, कुछ नशा है।
प्यास प्यासी जा रही है, मीत मेरे तू कहाँ है?
मीत मेरे तू कहाँ है?