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हर सुबह व्यापार जैसी ज़िन्दगी / कमलकांत सक्सेना

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हर सुबह व्यापार जैसी ज़िन्दगी
सांझ है अखबार जैसी ज़िन्दगी।

शुष्क पत्ते ही तुम्हें बतलाएँगे
टूटते कचनार जैसी ज़िन्दगी।

दर्पणों में दीखती है गुलमोहर
जबकि है तलवार जैसी ज़िन्दगी।

मान खो दे मांग भी सिन्दूर का
तब मिले कलदार जैसी ज़िन्दगी।

जी रही है प्यास के तालाब में
बांझ के शृंगार जैसी ज़िन्दगी।

लोग जीते हैं खिलौनों की तरह
खेलते संसार जैसी ज़िन्दगी।

कीच में ऊगा 'कमल' ईश्वर बना
पूजिये अवतार जैसी ज़िन्दगी।