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धुँधलाते पहचान प्रतीक / ज्योति खरे
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धूप किसी को किसी को छाँव
सुख के शहर ग़मों के गाँव
देख-देख आईना अब
ख़ुद पर रहे हैं खिलखिला
गुज़रे कल के जंगल में
खोजें प्रणय का ढहा किला
बढ़ती ही जाती हैं दूरियाँ
धुँधलाते पहचान प्रतीक
घास दुखों की हो गई काबिज़
गुम हो गई सुखों की लीक
नाक़ाबिल चलने से पाँव
नहीं मारती ज़ोर ह्रदय में
अब जीने की चाह
दिवस महीने बरस-बरस
जीना हो गया गुनाह
अपने सम्मुख खड़ी जिरह
करती-सी स्थितियाँ
मौन हमारा निर्विरोध
अपराधी सी स्वीकृतियाँ
उलटे पड़े यहाँ सब दाँव