Last modified on 13 जून 2018, at 17:31

एक (हम) / शिशु पाल सिंह 'शिशु'

Lalit Kumar (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:31, 13 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=शिशु पाल सिंह 'शिशु' |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

जहाँ पर टेका हमने भाल, वहीं पर मंदिर भव्‍य बना;
किया जो अपने हाथों कार्य, वहीं सबका कर्त्‍तव्‍य बना।
नियम जो विधिवत धारण किया, धर्म वह सबका कहलाया;
मनन करके पाया जो भेद, मर्म वह सबका कहलाया।

गुनगुनाई हमने जो पंक्‍ति, गायकों को वह गेय हुई;
सराही जो सुन्‍दरता, वहीं अलंकारों को श्रेय हुई.
जिस जगह पर हम सोये, वहीं रात की रानी मँहक उठी;
जहाँ पर जागे उषा वहीं, बिहंगों को ले चहक उठी।

जिधर चल पड़े मनचले चरण, उधर ही पीछे डगर चली;
न रूकने वाली गतियाँ देख, जमाने की गति निखर चली।
हमारे संकेतों से बदल गये, पन्‍ने इतिहासों के;
मरू-स्‍थल के आँगन में सुमन, मुसकराये मधुमासों के.

हुआ पूजित ही अपना भाल, किसी के भी अभिषेकों में।
क्‍योंकि झलका करता हर समय हमारा एक अनेक में॥