भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-91 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:51, 15 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रंजना वर्मा |अनुवादक= |संग्रह=मुक...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थी शिकायत कई किन्तु सब चुक गयी
जब मिलायी नजर तो नजर झुक गयी।
थाम कर हाथ उस ने इशारा किया
दिल धड़कने लगा साँस भी रुक गयी।।

जिंदगी की डायरी अब तो पुरानी हो चली
अनुभवों के बोझ से दब कर दिवानी हो चली।
फट रहे पन्ने पुराने हाथ भी अब थक चले
आज यह दैनन्दिनी गुजरी कहानी हो चली।।

भोर की पहली किरन सिंगार जब करने लगे
प्रात रवि से उदय की मनुहार जब करने लगे,
तब रचा करती रंगोली विविध रंगों से धरा
गगन के आँगन हवा जयकार जब करने लगे।।

मन तुमको नित्य पुकार रहा
तन मन जीवन सब वार रहा।
घनश्याम कभी तो दो दर्शन
यह भक्तों का अधिकार रहा।।

तलाक देने की जो धौंस दिया करते हैं
बिना वजह जो जिगर चाक किया करते हैं।
कहते हैं खुद को मसीहा औ खुदा का बन्दा
समझ के जानवर हलाल किया करते हैं।।