भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सिर्फ़ सूदो-जियाँ समझता है / उत्कर्ष अग्निहोत्री
Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:27, 27 जून 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=उत्कर्ष अग्निहोत्री |अनुवादक= |सं...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
सिर्फ़ सूदो-जियाँ समझता है।
बात कोई कहाँ समझता है।
मैं जहाँ हूँ वहाँ अकेला हँू,
वो मुझे कारवाँ समझता है।
डूबकर देख तो ज़रा उसमें,
तू जिसे बेज़ुबाँ समझता है।
वो सुखनवर है फूल के जैसा,
ख़ुशबूओं की ज़ुबाँ समझता है।
क्या बताएगा फ़लसफ़ा कोई,
तू ख़ुदी को कहाँ समझता है।