भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ओ दिन घणों अन्धेरो है / लक्ष्मीनारायण रंगा

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:51, 23 जुलाई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=लक्ष्मीनारायण रंगा |अनुवादक= |स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ओ दिन घणो अन्धेरो है
हर रोसणी पर पैरो है

मंथण कर इमरत लाया
काळा नागां रो घेरो है

ऊंची मेड़ी ऊग्यो सूरज
गळयां रो भाग अन्धेरो है

बसन्त में पेड़ नागा-भूखा
ई जमीं रो दुख गैरो है

जमीं-आकड़ां फसलां ऊगै
खेत भूखां रो डेरो है

मिनख गमादी सै पैछांण
मुखौटो ही अब चैरो है

हर आवाज बणगी चीखां
कान जमीन रो बहरो है

गांव-गांव बस्त्यां बळै
किण रौ ओ पगफेरो है।