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कोई चुरा रहा है / अंजना वर्मा

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कोई चुपके-चुपके चुरा रहा है
हमारा समय
रोटी की तरह खाता है हमारा वक्त
सूती कपड़े की तरह तंग हो गये हैं
हमारे दिन-रात
हमारा वजूद समा नहीं रहा उसमें
गरीब की चादर बन गया है वक्त
सिर ढँको तो पाँव नंगे
पाँव ढँको तो सिर

वे हाथ कहाँ दिखाई देते हैं
जो नचा रहे हैं हमें?
हम कठपुतलियाँ हैं बेशक
क्योंकि नाच रहे हैं
पर काठ के नह़ीं बने हम
हम जीवित हैं
साँसें चल रही हैं हमारी
हमारे हाथ-पैर भी चल रहे हैं
दिल और दिमाग भी
पर सब चल रहे हैं
किसी और के इशारे पर

हम बँधुआ मजदूर हैं
बाजार के गुलाम
जो सिर्फ़ विस्तार चाहता है
और दुनिया में कुछ नह़ीं
किसीका वजूद नह़ीं
सब बेजान-बेकार!