भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ / सहजोबाई

Kavita Kosh से
Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:30, 30 जुलाई 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सहजोबाई |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatPad}} <poe...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

राम तजूँ पै गुरु न बिसारूँ। गुरु के सम हरि कूँ न निहारूँ॥
हरि न जन्म दियो जगमगाहीं। गुरु ने आवागमन छुटाहीं॥
हरि ने पांच चोर दिये साथा। गुरु ने लइ लुटाय अनाथा॥
हरि ने कुटुँब जाल में गेरी। गुरु ने काटी ममता बेरी॥
हरि ने रोग भोग उरझायो। गुरु जोगी कर सबै छुटायो।
हरि ने कर्म मर्म भरमायो। गुरु ने आतम रूप लखायो॥
फिर हरि बंध मुक्ति गति लाये। गुरु ने सब ही मर्म मिटाये॥
चरन दास पर तन मन वारूँ। गुरु न तजूँ हरि को तजि डारूँ॥