भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हो गेलऽ भोंद / अरुण हरलीवाल
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:38, 2 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण हरलीवाल |अनुवादक= |संग्रह=कह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
बड़-बड़ गो आँख तोहर हो गेलो चोंध अब;
पढ़ल-लिखल तूँ काहे हो गेलऽ भोंद अब!
देखऽ, फिनो आ गेलो मउसम चुनाउ के;
नेता गिरे लगलन हे लोंदे के लोंद अब।
बोरा हल जे गोहुम के कोटा दोकान में,
बदल गेल रूप ओकर, बन गेल ऊ तोंद अब।
हम शहर से ऊबके आ गेली गाँव में;
मगर इहों कहाँ रहल माटी ऊ सोंध अब!