Last modified on 4 अगस्त 2018, at 12:58

कांटों की सहोदरा हैं कलियां / प्रभात कुमार सिन्हा

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:58, 4 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रभात सरसिज |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

कोमल कलियाँ वृन्तों-वल्लरियों पर
आँखें खोलते ही मुस्कुराती हुईं सर ऊँचा कर लेती है
सर उन्नत कर जवानी की संभावनाओं की
यवनिका उठाती हैं
अधखिली कलियाँ अपने प्रकट होने का
मंगलाचरण खुद गाती हैं
जिन्हें सुनकर झूम उठती हैं पत्तियाँ
कलियाँ जीवन का स्वप्निल संदेश देती हैं
अबोध कामगारों की तरह ही
आगत-अनागत से बेफ़िक्र होती हैं ये कलियाँ
संसार में प्रवेश करना
लड़ाइयों के मंच पर अवतरित होना है
प्रगटित कलियाँ नहीं जानतीं
अधिकतर गज़लें लड़ाइयों के
तालठोंक अंदाज की परवाह नहीं करतीं
लड़ाइयाँ छुपी होती हैं घासों में
विषधरों के रहवास हैं ये घास
कुटिल बनियों-सटोरियों की शूल-बांहों की
राजधानी हो गयी है दुनिया
खिलती हुईं कलियाँ यह नहीं जानतीं
वे केवल मुस्कुराना जानती हैं
अपने वृन्तों पर उग आये कांटों की
सहोदरा हैं ये कलियाँ
ये कांटे पुष्पिकाओं के पतन को रोकना नहीं जानते
ये कांटे देखते रह जाते हैं पुष्पिकाओं को
विषधरों के पाश में जाते हुए