भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुनिया को फ़क़त ख़ाबे-परीशां पाया / रतन पंडोरवी

Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:17, 13 अगस्त 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रतन पंडोरवी |संग्रह=हुस्ने-नज़र /...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दुनिया को फ़क़त ख़ाबे-परीशां पाया
हर गुल को यहां खारे-मगीलां पाया
धोखा है ज़रो-मालो-मनालो-सरबत
इन सब को 'रतन' मूज़िबे-इसियां पाया।

खाली हो जो फूलों से गुलिस्तां कोई
कम रुतबा नहीं उस से बयाबां कोई
दुनिया की रविश देख के कहता हूँ 'रतन'
इंसान के बस में न हो इंसां कोई।

दौलत की तरक़्क़ी है सख़ावत में निहां
है मुल्क की बेहदूद तिजारत में निहां
जीना है अगर दहर में जीने की तरह
ये वस्फ़ है आपस की महब्बत में निहां।

दुनिया की निगाहों में समाते जाओ
ये जज़्बा महब्बत का दिखते जाओ
ईसार-ए-महब्बत का तक़ाज़ा है 'रतन'
ख़ुद डूब के साहिल को बनाते जाओ।