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चलो आदमी आदमी खेलते हैं / अशोक कुमार

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वह आदमी-सा दिखता था
उन्होंने चाहा
वह उनके साथ आदमी-आदमी खेले

वह जो था बहिष्कृत था कोई
जिसकी भोंडी-सी शक्ल थी
और जो अक्सर उन्हें दिख जाता था
किसी राह पर
ठीक वहीं से बदरंग और बदसूरत होती थी उनकी दुनिया

वह कोई आदमी आदमी-सा एक जीव था
जो किसी दौड़ में पिछड़ गया था
कोई आदमी-आदमी के खेल में

उसने कहा
मैं सदियों से खेल ही तो रहा हूँ
आदमी आदमी
तुम मुझे आदमी समझते कहाँ हो

उन्होंने कहा
तुम आदमी लगते भी कहाँ हो
अभी उद्-विकास में तुम्हारी पूँछ गयी नहीं है
और आदमी होना सवाल मूँछों का हो गया है अब

हाँ, मुझे अपनी धूरी पर घूमना ही आता है
गोल गोल
वहीं खत्म होता हूँ
जहाँ से रोज शुरू होता हूँ

हाँ तुम इसलिये ही तो आगे नहीं बढ़ पाते
क्योंकि तुम्हें सिर्फ़ घूर्णन ही आता है
परिक्रमा नहीं आती

तो फिर मेरे संग
क्यों खेलना चाहते हो खेल
आदमी आदमी का

क्योंकि मैं तुमसे जीतना चाहता हूँ
हर हाल में

क्या जीत इतनी ज़रूरी है
वह भी उससे
जो आदमी न हुआ हो

अरे
तुम आदमी न हुए
तो क्या
तुम्हें आदमी बनाने में हमने
कसर कहाँ छोड़ी
तुम्हारे लिये
शास्त्र रचे
वेद
पुराण
उपनिषद

अभी भी रच रहे हैं
कहानियाँ
कवितायें
महाकाव्य
महाकाव्यात्मक उपन्यास

तुम्हारे लिये
रचे कई भाषा विज्ञान की किताबें
प्रेम की कई परिभाषायें
जिन्हें दीमकों से बचा कर रखा गया है

तुम्हें पढाना है
नाट्य शास्त्र
सिखाना है नृत्य
गायन
और सबसे बड़ी
और सबसे पहले
दुनियादारी

इसके सीखते ही
तुम बन जाओगे आदमी

फिलहाल
खेलो तो
मेरे संग
आदमी आदमी

क्या पता
खेलते खेलते
बन जाओ
आदमी

चलो आदमी-आदमी खेलते हैं।