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परख / अशोक कुमार
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जमीन को छू कर
एक ने कहा
ऊसर है जमीन
दूसरे ने कहा
उपजाऊ है
मैं सोच में पड़ गया
मैं जमीन से कहाँ जुड़ा था
फसल को देख
एक ने कहा
लहलहा रही है
दूसरे ने कहा
सूख रही है
मैं चुप रहा
मुझे रबी और
खरीफ के बारे में भी
क्या पता
बस्ती को देख
एक ने कहा
शहर नहीं हुआ
दूसरे ने कहा
गाँव नहीं रहा
मैं चुप रहा
गाँव से शहर आ कर
मैं दोनों की
परिभाषायें नहीं जी पाया
हवा को भांप
एक ने कहा
प्रेम है
दूसरे ने कहा
घृणा
मैं प्रेम और घृणा के द्वन्द में
पशोपेश में रहा
आदमी को लख
एक ने कहा
आम है
दूसरे ने कहा
खास
मैंने कहा-बस
मुझे परख का कहाँ पता!