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ख़ामोशी उंगलियां चटखा रही है / नासिर काज़मी
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ख़ामोशी उंगलियां चटखा रही है
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है
दिले-वहशी लिए जाता है लेकिन
हवा जंजीर-सी पहना रही है
तिरे शहरे-तरब की रौनकों में
तबीयत और भी घबरा रही है
करम ऐ सरसरे-आलामे-दौरां
दिलों की आग बुझती जा रही है
कड़े कोसों के सन्नाटे हैं लेकिन
तिरी आवाज़ अब तक आ रही है
तनाबे-ख़ैमए-गुल थाम 'नासिर'
कोई आँधी उफ़क़ से आ रही है।