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सब वैसा ही कैसे होगा? / अशोक कुमार पाण्डेय

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तुम कहाँ होगी इस वक़्त?
क्षितिज के उस ओर अपूर्ण स्वप्नों की एक बस्ती है
जहां तारें झिलमिलाते रहते हैं आठों पहर
और चंद्रमा अपनी घायल देह लिए भटकता रहता है
तुम्हारी तलाश में हज़ार बरस भटका हूँ वहाँ
नक्षत्रों के पाँवों से चलता हुआ अनवरत

इतने बरस हो गए चेहरा बदल गया होगा तुम्हारा
उम्र के ही नहीं सफ़र के भी कितने निशाँ मेरे धब्बेदार चेहरे में भी
मैं तुम्हारे आँसुओं का स्वाद जानता हूँ और पसीने की गंध
तुम्हें याद है अपने चुम्बनों की खुशबू?

एक टूटा हुआ बाल ठहरा हुआ है मेरे कन्धों पर
अब भी उतना ही गहरा, उतना ही चमकदार
टूटी हुई चीजों के रंग ठहर जाते हैं अक्सर ...

तुमने विश्वास किया मेरी वाचालता पर
और मैं तुम्हारे मौन की बांह थामे चलता रहा
भटकना नियति थी हमारी और चयन भी
जिन्हें जीवन की राहें पता हों ठीक-ठीक
उन्हें प्रेम की कोई राह पता नहीं होती

तुम्हें याद है वह शाल वृक्ष
उखड़ती साँसें संभाले अषाढ़ की एक शाम रुके थे हम जहाँ
मैंने उसकी खाल पर पढ़ा है तुम्हारा नाम
अंतराल का सारा विष सोख लिया है उसने
और वह अब तक हरा है

स्मृति एक पुल है हमारे बीच
हमारे कदमों की आवृति के ठीक बराबर थी जिसकी आवृति
मैं यहीं बैठ गया हूँ थककर तुम चल सको तो आओ चल के इस पार

क्या अब भी उतनी ही है तुम्हारे पैरों की आवृति?