Last modified on 1 सितम्बर 2018, at 17:01

खिल गई है चम्पा / नीरजा हेमेन्द्र

Sharda suman (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:01, 1 सितम्बर 2018 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीरजा हेमेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

परबतों से आती है, मलय समीर,
चंचल मन मौसम संग उड़-उड़ जाता है।
खिल उठंे ह्नदय में, पुश्प फिर चम्पा के,
अल्हड़-से दिन पुनः लौट-लौट आते हैं।
बारिश की रिमझिम में, चम्पा महकती है,
व्याकुल ह्नदय तुम्हे समीप फिर पाता है।
ऋतुएँ तो आती और जाती हैं, कदाचित्
ह्नदय में स्मृतियाँ ठहर-सी जातीं हैं।
चम्पा के पुश्पों की गन्ध-सी देह म,ें
उन्मुक्त मन देह संग सिहर-सिहर जाता है।
चम्पा खिलेगी और आओगे तुम भी,
धीरे से कानों में कोई कह जाता है।
वृक्षों पर हैं बौर हैं, पक्षियों के कलरव हैं,
खिल गई है चम्पा तुम कब आओगे।