विदा 4- लेना विदा यूँ / पल्लवी त्रिवेदी
टहनी तब सबसे ज्यादा उदास नहीं होती
जब देखती है पहली बार पत्ते के कच्च हरे रंग पर हल्का पीलापन
विदा का पहला संकेत
यह तो उतना ही सहज
जैसे आँखों के गिर्द झुर्रियों ने पहली आमद दी हो
जैसे केशों में पहला चांदी का तार झिलमिलाया हो
वक्त सिलता रहता है एक पीला लिबास पत्ते के लिए
टहनी और पत्ता दोनों विदा की आहट सूंघते हैं चुपचाप, बेआवाज़
कैसी तो कसैली बू होती है इस आहट की
सावन भले ही देरी का आदी हो
वक्त का पक्का पतझर कभी आने में चूकता नहीं
पतझर के लिए कोई मन्नत नहीं मांगता
बिना मुरादों वाले बच्चे ढीठ और जिद्दी होते हैं .
टहनी पत्ते से बिछुड़ने के बाद भी सबसे ज्यादा उदास नहीं होती
हर पत्ते को एक दिन अतीत बन ही जाना होता है
टहनी सबसे ज्यादा उदास होती है पत्ते के एन टूटते समय
ठीक वो एक पल जब पत्ते से लिपटी उसकी ऊँगली की पकड़ छूट रही होती है
जब वह पत्ते को छूती है आखिरी बार
घनी उदासियों और गहरी पीड़ाओं से मिलकर बनता है
अलविदा का एक कठिन क्षण
आत्मा का देह से अलग होने का क्षण
दृश्य का स्मृति बन जाने का क्षण
मैं और टहनी आज भी लिपटकर रोते हैं जब याद करते हैं
एक हथेली से दूसरी हथेली का सरकते जाना
उँगलियों का उँगलियों के आखिरी छोर तक जाना
और अलग हो जाना
यूं ही नहीं एक नरम दिल कवि* कहा करता था कि
‘विदा शब्दकोष का सबसे रुआंसा शब्द है"