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प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

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एक बड़ी चट्टान को तोड़ा गया
तोड़ कर जोड़ा गया
जोड़ कर छोड़ा गया
पीठ ठोकी आप अपने हाथ से
खुश हुआ था आदमी
इस नई ईजाद पर
एक बड़ी चट्टान...
जोड़-जोड़ से दरारें झाँकने लगी
काल दी छेनी दरारों को क्या छलनी
चट्टान रोड़े बन खड़ी है राह में
आदमी रोने लगा
कोसने फिर लग गया ईजाद को
अपने किये का फल लगा वह भोगने
एक बड़ी चट्टान...
चोट खाये आदमी को बीधने फिर लग गई
आ गई तम से निकल कर
आदमी के बोध से प्रबोधिनी
जिंदगी का गीत गाने लग गई